कहाँ गए वो दिन ?
देश की आज़ादी से पूर्व
भारतीय नृत्य कला का दौर काफी सीमित था। केवल कुछ ही लोग इस कला क्षेत्र से जुड़े
हुए थे। शास्त्रीय नृत्य कलाएँ भी सम्मानित दशा में नहीं थी। केवल कुछ संस्थाएं
नृत्य कलाओं को मनोरंजन का माध्यम बना कर प्रयोग में लातीं थीं। दक्षिण भारत में
नृत्य कलाएँ मंदिरों में सीमित थीं। देवदासी प्रथा भी केवल कुछ त्योहारों और पूजा
अवसरों पर इन नृत्यों को भगवान की भक्ति का माध्यम बना कर प्रस्तुत किया जाता था। कहीं
से कोई प्रोत्साहन तथा रखरखाव का साधन उपलब्ध नहीं था। नृत्य शिक्षा में शुरू से
ही गुरु शिष्य परंपरा कायम रही है। परंतु कोई ऐसा विध्यालय अथवा संस्थान नहीं था जहाँ
विधिवत नृत्य शिक्षा प्राप्त की जा सके। जो थे वहाँ सभी का पहुँचना संभव नहीं था ।
आज़ादी के पश्चात राजधानी
दिल्ली में नृत्य कलाओं का दौर आरंभ हुआ । सर्वप्रथम भारतीय कला केंद्र नामक
संस्थान में कला प्रेमियों के लिए कार्य शुरू किया। यह संस्था पूर्ण रूप से गैर
सरकारी थी। परंतु यह एक सराहनीय कदम था। जहाँ पर श्री नरेंद्र शर्मा के निर्देशन
में राम लीला नामक नृत्य नाटिका का प्रारंभ हुआ जो लगभग आज तक कायम है । दिल्ली
में कलाकारों की कमी थी । देश के लगभग सभी भागों के कलाकारों को
आमंत्रित किया गया
और सामूहिक रूप से कलाकारों को रोजगार का अवसर से प्राप्त हुआ । केरल, बंगाल ,
आसाम , मणिपुर से कलाकारों का दिल्ली में प्रवेश हुआ। केंद्र में रामलीला का मंचन
देश के अन्य भागों तथा विदेशों में भी हुआ। यहाँ पर एक नृत्य संस्था के
गठन हुआ । जहाँ पर रहने के लिए भी स्थान उपलब्ध था। बहुत सी सामूहिक नृत्य
संरचनाएँ लोक नृत्य होने लगी।
एक अन्य संस्था नाट्य बैले
सेंटर भी उसी दशक में शुरू हुई । जहाँ पर सर्व प्रथन कृष्ण लीला नामक नृत्य संरचना
की गयी। यह भी एक सामूहिक नृत्य संरचना थी। जिसमें लगभग 100 से अधिक कलाकार एक साथ
मंच पर होते थे। भगवानदास जी द्वारा इसकी परिकल्पना तैयार की गयी थी। गौरतलब बात
यह है की यह संस्था भी गैर सरकारी थी। जहाँ कलाकारों को रोजगार का अवसर प्राप्त
हुआ। नाट्य बैले संस्था द्वारा केवल कृष्ण लीला पर ही अधिक ध्यान दिया जाता था।
देश में संगीत नाटक
अकादेमी की स्थापना सन 1954 में की गयी। यह केवल ऐसा संस्थान था जहाँ से भारतीय
नृत्य और संगीत की शिक्षा और शास्त्रीय कला का प्रचार प्रसार संभव था। यहाँ भी कुछ
कलाकारों को अवसर प्राप्त हुआ परंतु केवल प्रशासनिक कार्य हेतु। संगीत नाटक
अकादेमी द्वारा कथ्थक केंद्र
की स्थापना हुई तथा
शास्त्रीय नृत्य कथ्थक का प्रचार प्रसार हुआ। गुरु श्री शंभू महाराज, श्री फिरतू महाराज तथा दुर्गालाल जैसे गुरुओं को नृत्य के
प्रचार प्रसार के लिए आमंत्रित किया गया। लगभग 60 के दशक तक राजधानी में
सांस्कृतिक कार्यों की शुरुआत हो चुकी थी। यहाँ यह कहना आवश्यक है की सभी सरकारी
तथा गैर सरकारी दोनों ही सामूहिक नृत्य संरचनाओं द्वारा नृत्य को आगे बढ़ा रहीं
थीं। कथ्थक केंद्र में भी अनेकों सामूहिक नृत्य संरचनाओं को तैयार किया गया। कुमार
संभव, मालती माधव, होरी
धूम मचोरी, कालिया दमन तथा अन्य बहुत सी नृत्य नाटिकाएँ तैयार
की।
भारतीय कला केंद्र में भी कोणार्क, कर्ण, शान-ए-अवध, कृष्ण
नयन, खजूराओ आदि नृत्य नाटिकाओं को प्रस्तुत किया। सभी
प्रदेशों में इन नृत्य संरचनाओं के लिए। उत्सवों का आयोजन होने लगा। यह दौर ऐसा था
जिसमें पूरे देश में नृत्य नाटिका का जिसे बैले का नाम दिया गया ऐसा दौर था। सरकार
द्वारा भी बहुत से बैले फेस्टिवल होते थे। जिससे देश की जनता में नृत्य नाटिका के
प्रति काफी उत्साह था। इन नृत्य नाटिका की अवधी भी 2-3 घंटे की होती थी।
सन 70 के दशक में अन्य
नृत्य संस्थाएं जैसे भूमिका, कुचीपुड़ी सेंटर, इंटरनेशनल कथकली संस्था ने भी दिल्ली में कार्य शुरू किया। जिसमें
‘वुल्फ़ बॉय’ पंडित
नरेंद्र शर्मा की संरचना थी। दुर्गा बैले
स्वप्न सुंदरी द्वारा और कथकली में भी
सामूहिक नृत्य संरचनाएँ प्रस्तुत हुईं। त्रिवेणी कला संगम में मणिपुरी नृत्य और
भरतनाट्यम के गुरु कार्य करने लगे। तथा एक एक कर सभी गुरु सामूहिक नृत्यों में
अपनी प्रस्तुतियाँ तैयार करने लगे। विदेशों में भी I.C.C.R के द्वारा सामूहिक नृत्य संरचनाओं को भेजा जाने
लगा। देश के अन्य भागों में भी लिटिल बैले ट्रूप भोपाल में, सचिन शंकर बम्बई में, चंद्रलेखा
मद्रास में तथा आनंद शंकर, ममता शंकर, अमला
शंकर कलकत्ता में , सभी लोग सामूहिक रूप की बैले संरचनाओं को
प्रदर्शित करने में लगे जिसका एक मुख्य कारण था , सभी श्री उदय शंकर के नृत्य से प्रभावित थे। सभी अपने चारों ओर
ऐसी संस्कृति देख रहे थे जिसमें सामूहिक कार्यों पर अधिक बल दिया जा रहा था। आज़ादी
से पूर्व इप्टा जैसी संस्थाएं भी सामूहिक रूप से कार्य करती ही।
परंतु 80 के दशक के बाद इनसे
बदलाव आना शुरू हुआ। जिसका कारण था शास्त्रीय नृत्यों के क्षेत्र में एकल नृत्य का
प्रस्तुतिकरण अधिक हुआ। कलाकार एकल भुगल नृत्य प्रस्तुत करने लगे जो केवल पूर्ण और
शुद्ध शास्त्रीय होने लगा। संगीतकारों और संगतकारों में कमी आने लगी। नए
रिकॉर्डिंग स्टूडियो खुलने लगे।
कहने का तात्पर्य यह है की
कहाँ गए वो दिन जब सभी नृत्य समूह सामूहिक नृत्य संरचनाएँ करती थी। और कलाकारों को
भी रोजगार प्राप्त होता था। क्या एकल और युगल नृत्य 3 घंटे तक लोगों को बाँधे रख
सकते हैं ? क्या एकल नृत्य संगीतकारों का समूह जुटा पाते हैं ? क्या संगीत का क्षेत्र नृत्य के क्षेत्र से अलग होगा? ऐसे बहुत से प्रश्न हैं जो इस क्षेत्र में जिज्ञासा रखते हैं।
सामूहिक नृत्य संरचनाओं के
माध्यम से लोगों में बड़ी बड़ी कहानियों को मनोरंजन द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है, जिससे लोगों में हमेशा एक संदेश पहुँचता है। परंतु लगता है अब
धीरे धीरे बड़े बड़े ग्रुप लुप्त हो जायेंगे। बड़े संगीत समूह नृत्य समूह, शायद अब इन सब के लिए कलाकारों के पास पैसा नहीं और जनता के
पास समय। आज हम अपनकल भूलते जा रहे हैं और दूसरों के आज संग चल रहे हैं। ऐसा न हो
कौआ चला हंस की चाल और अपनी चाल भूल गया। जब हम गुलाम थे
तो हमारी कला अपनी थी। आज
हम आज़ाद हैं तो दूसरों की कला के गुलाम बनते जा रहे हैं।
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