Saturday, June 20, 2015

डॉ. कृष्ण कुमार शर्मा द्वारा एक कविता

एक दो तीन चार पाँच

                   - डॉ. कृष्ण कुमार शर्मा 


शायद ?
एक अकेले ने
रच डाली इस सृष्टि की
विनाश की लीला ।। 

दो ने जब,
विश्वास दिखाया,
इस सृष्टि को विनाश से जगाया॥ 

तीन नेत्र जब,
खुले सृष्टि पर,
तांडव कर,
नृत्य को बनाया॥ 

चार पुत्र माता के,
गर एक हो जाएँ,
इस सृष्टि से आतंक को मिटाएं॥

पाँच तत्वों की है,
सृष्टि और मानव,
फिर क्यों न एक दूजे में समाएँ।   
फिर क्यों न, 

एक दूजे के हो जाएँ।।   

कहाँ गए वो दिन - डॉ. कृष्ण कुमार शर्मा

              कहाँ गए वो दिन ?
देश की आज़ादी से पूर्व भारतीय नृत्य कला का दौर काफी सीमित था। केवल कुछ ही लोग इस कला क्षेत्र से जुड़े हुए थे। शास्त्रीय नृत्य कलाएँ भी सम्मानित दशा में नहीं थी। केवल कुछ संस्थाएं नृत्य कलाओं को मनोरंजन का माध्यम बना कर प्रयोग में लातीं थीं। दक्षिण भारत में नृत्य कलाएँ मंदिरों में सीमित थीं। देवदासी प्रथा भी केवल कुछ त्योहारों और पूजा अवसरों पर इन नृत्यों को भगवान की भक्ति का माध्यम बना कर प्रस्तुत किया जाता था। कहीं से कोई प्रोत्साहन तथा रखरखाव का साधन उपलब्ध नहीं था। नृत्य शिक्षा में शुरू से ही गुरु शिष्य परंपरा कायम रही है। परंतु कोई ऐसा विध्यालय अथवा संस्थान नहीं था जहाँ विधिवत नृत्य शिक्षा प्राप्त की जा सके। जो थे वहाँ सभी का पहुँचना संभव नहीं था ।
आज़ादी के पश्चात राजधानी दिल्ली में नृत्य कलाओं का दौर आरंभ हुआ । सर्वप्रथम भारतीय कला केंद्र नामक संस्थान में कला प्रेमियों के लिए कार्य शुरू किया। यह संस्था पूर्ण रूप से गैर सरकारी थी। परंतु यह एक सराहनीय कदम था। जहाँ पर श्री नरेंद्र शर्मा के निर्देशन में राम लीला नामक नृत्य नाटिका का प्रारंभ हुआ जो लगभग आज तक कायम है । दिल्ली में कलाकारों की कमी थी । देश के लगभग सभी भागों के कलाकारों को
आमंत्रित किया गया और सामूहिक रूप से कलाकारों को रोजगार का अवसर से प्राप्त हुआ । केरल, बंगाल , आसाम , मणिपुर से कलाकारों का दिल्ली में प्रवेश हुआ। केंद्र में रामलीला का मंचन देश के अन्य भागों तथा विदेशों में भी हुआ। यहाँ पर एक नृत्य संस्था के गठन हुआ । जहाँ पर रहने के लिए भी स्थान उपलब्ध था। बहुत सी सामूहिक नृत्य संरचनाएँ लोक नृत्य होने लगी।
एक अन्य संस्था नाट्य बैले सेंटर भी उसी दशक में शुरू हुई । जहाँ पर सर्व प्रथन कृष्ण लीला नामक नृत्य संरचना की गयी। यह भी एक सामूहिक नृत्य संरचना थी। जिसमें लगभग 100 से अधिक कलाकार एक साथ मंच पर होते थे। भगवानदास जी द्वारा इसकी परिकल्पना तैयार की गयी थी। गौरतलब बात यह है की यह संस्था भी गैर सरकारी थी। जहाँ कलाकारों को रोजगार का अवसर प्राप्त हुआ। नाट्य बैले संस्था द्वारा केवल कृष्ण लीला पर ही अधिक ध्यान दिया जाता था।
देश में संगीत नाटक अकादेमी की स्थापना सन 1954 में की गयी। यह केवल ऐसा संस्थान था जहाँ से भारतीय नृत्य और संगीत की शिक्षा और शास्त्रीय कला का प्रचार प्रसार संभव था। यहाँ भी कुछ कलाकारों को अवसर प्राप्त हुआ परंतु केवल प्रशासनिक कार्य हेतु। संगीत नाटक अकादेमी द्वारा कथ्थक केंद्र
की स्थापना हुई तथा शास्त्रीय नृत्य कथ्थक का प्रचार प्रसार हुआ। गुरु श्री शंभू महाराज, श्री फिरतू महाराज तथा दुर्गालाल जैसे गुरुओं को नृत्य के प्रचार प्रसार के लिए आमंत्रित किया गया। लगभग 60 के दशक तक राजधानी में सांस्कृतिक कार्यों की शुरुआत हो चुकी थी। यहाँ यह कहना आवश्यक है की सभी सरकारी तथा गैर सरकारी दोनों ही सामूहिक नृत्य संरचनाओं द्वारा नृत्य को आगे बढ़ा रहीं थीं। कथ्थक केंद्र में भी अनेकों सामूहिक नृत्य संरचनाओं को तैयार किया गया। कुमार संभव, मालती माधव, होरी धूम मचोरी, कालिया दमन तथा अन्य बहुत सी नृत्य नाटिकाएँ तैयार की।
भारतीय कला केंद्र में भी कोणार्क, कर्ण, शान-ए-अवध, कृष्ण नयन, खजूराओ आदि नृत्य नाटिकाओं को प्रस्तुत किया। सभी प्रदेशों में इन नृत्य संरचनाओं के लिए। उत्सवों का आयोजन होने लगा। यह दौर ऐसा था जिसमें पूरे देश में नृत्य नाटिका का जिसे बैले का नाम दिया गया ऐसा दौर था। सरकार द्वारा भी बहुत से बैले फेस्टिवल होते थे। जिससे देश की जनता में नृत्य नाटिका के प्रति काफी उत्साह था। इन नृत्य नाटिका की अवधी भी 2-3 घंटे की होती थी।
सन 70 के दशक में अन्य नृत्य संस्थाएं जैसे भूमिका, कुचीपुड़ी सेंटर, इंटरनेशनल कथकली संस्था ने भी दिल्ली में कार्य शुरू किया। जिसमें वुल्फ़ बॉय पंडित नरेंद्र शर्मा की संरचना थी। दुर्गा बैले
स्वप्न सुंदरी द्वारा और कथकली में भी सामूहिक नृत्य संरचनाएँ प्रस्तुत हुईं। त्रिवेणी कला संगम में मणिपुरी नृत्य और भरतनाट्यम के गुरु कार्य करने लगे। तथा एक एक कर सभी गुरु सामूहिक नृत्यों में अपनी प्रस्तुतियाँ तैयार करने लगे। विदेशों में भी I.C.C.R के द्वारा सामूहिक नृत्य संरचनाओं को भेजा जाने लगा। देश के अन्य भागों में भी लिटिल बैले ट्रूप भोपाल में, सचिन शंकर बम्बई में, चंद्रलेखा मद्रास में तथा आनंद शंकर, ममता शंकर, अमला शंकर कलकत्ता में , सभी लोग सामूहिक रूप की बैले संरचनाओं को प्रदर्शित करने में लगे जिसका एक मुख्य कारण था , सभी श्री उदय शंकर के नृत्य से प्रभावित थे। सभी अपने चारों ओर ऐसी संस्कृति देख रहे थे जिसमें सामूहिक कार्यों पर अधिक बल दिया जा रहा था। आज़ादी से पूर्व इप्टा जैसी संस्थाएं भी सामूहिक रूप से कार्य करती ही।
परंतु 80 के दशक के बाद इनसे बदलाव आना शुरू हुआ। जिसका कारण था शास्त्रीय नृत्यों के क्षेत्र में एकल नृत्य का प्रस्तुतिकरण अधिक हुआ। कलाकार एकल भुगल नृत्य प्रस्तुत करने लगे जो केवल पूर्ण और शुद्ध शास्त्रीय होने लगा। संगीतकारों और संगतकारों में कमी आने लगी। नए रिकॉर्डिंग स्टूडियो खुलने लगे।
 प्रस्तुतिकरण रिकॉर्डिंग पर होने लगा। धीरे धीरे सामूहिक नृत्य के क्षेत्र संकुपित होने लगे। सभी नृत्य समूह प्री रिकॉर्डिंग का प्रयोग करने लगे। रामलीला और कृष्णलीला तथा अन्य धार्मिक कार्यक्रम लगभग न के बराबर हो रहे हैं। सभी लोग व्यस्त जीवन यापन करने लगे जिस कारण प्रस्तुतियों का समय 3 घंटे से घाट कर एक घंटा रेह गया।
कहने का तात्पर्य यह है की कहाँ गए वो दिन जब सभी नृत्य समूह सामूहिक नृत्य संरचनाएँ करती थी। और कलाकारों को भी रोजगार प्राप्त होता था। क्या एकल और युगल नृत्य 3 घंटे तक लोगों को बाँधे रख सकते हैं ? क्या एकल नृत्य संगीतकारों का समूह जुटा पाते हैं ? क्या संगीत का क्षेत्र नृत्य के क्षेत्र से अलग होगा? ऐसे बहुत से प्रश्न हैं जो इस क्षेत्र में जिज्ञासा रखते हैं।
सामूहिक नृत्य संरचनाओं के माध्यम से लोगों में बड़ी बड़ी कहानियों को मनोरंजन द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है, जिससे लोगों में हमेशा एक संदेश पहुँचता है। परंतु लगता है अब धीरे धीरे बड़े बड़े ग्रुप लुप्त हो जायेंगे। बड़े संगीत समूह नृत्य समूह, शायद अब इन सब के लिए कलाकारों के पास पैसा नहीं और जनता के पास समय। आज हम अपनकल भूलते जा रहे हैं और दूसरों के आज संग चल रहे हैं। ऐसा न हो कौआ चला हंस की चाल और अपनी चाल भूल गया। जब हम गुलाम थे

तो हमारी कला अपनी थी। आज हम आज़ाद हैं तो दूसरों की कला के गुलाम बनते जा रहे हैं।
      

                              

Friday, June 19, 2015

विदेशी धरती पर देशी नृत्य - डॉ. कृष्ण कुमार शर्मा

   विदेशी धरती पर देशी नृत्य

                                                                                          - डॉ. कृष्ण कुमार शर्मा 
भारतीय नृत्य संस्कृति विदेशों में कब और कैसे पहुँची यह कोई प्राचीन कहानी नहीं है।19वीं शताब्दी में लंबे यातायात के साधन न के बराबर थे। पानी के बड़े बड़े जहाज़ बनने के बाद लंबी यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ परंतु भारतीय साहित्य पूरे विश्व में पहुँच चुका था। लोग पश्चिम में भारतीय साहित्य पर आधारित नृत्य कर काफी धन व लोकप्रियता अर्जित कर रहे थे। लंदन उन दिनो पूरे विश्व की राजधानी कहलाती थी। लंदन में अनेकों रशियन कलाकार भारतीय देवी देवताओं को आधार बना कर अपना नृत्य करते थे। परंतु भारतीय नृत्यकार और नर्तक वहाँ पहुँच पाने में असमर्थ थे। जिस्क प्रमुख कारण था भारत एक गुलाम देश था। यहाँ पर कला संस्कृति को आगे बढ़ाने के कार्यक्रम न के बराबर थे।हिंदु धर्म ही पूजा और मंदिरों के नाम पर शास्त्रीय कलाओं का संरक्षक बना हुआ था। देवदासियाँ ही मंदिरों में इन नृत्य कलाओं को देश में ही प्रस्तुत कर धार्मिक उत्सवों की शोभा बनी हुईं थी।
भारतीय नृत्य में अनेक रंग हैं, विरासत है, कहानियाँ हैं, धर्म है। ऐसी ऐसी परंपराओं और रीतिरिवाज़ों पर आधारित इस नृत्य कला के रूप को जब भी कोई ध्यान से निहारता है तो मुग्ध हो जाता है। शास्त्रीय नृत्य, लोक नृत्य , इंद्रधनुष में भी इतने रंग नहीं जीतने भारतीय नृत्य के रूप । चाहे वह शास्त्रीय नृत्य क्यों न हो। 7 से 8 प्रकार के शास्त्रीय नृत्य, भाषा और वेश भूषा बिल्कुल भिन्न हैं । लोक नृत्य अनेकों रंगों अनेक प्रांत रीति रिवाज़ सभी कुछ न कुछ ऐसे संगीत के साथ बंधे हैं की एकता में अनेकों खूबियों से संबंधित देश सूत्र से बंधे हैं। भारतीय कला को जब पंडित उदय शंकर ने पहचाना तब वह एक ऐसा दौर था जब सभी कलाएँ दाबी हुई थीं। उन्होने सभी शास्त्रीय और लोक कलाओं को मार्ग दिखाया और विदेशों में इनकी प्रस्तुतियाँ कर दुनिया को दिखाया की भले ही भारत एक गरीब देश है परंतु यहाँ की नृत्य संगीत की विरासत अपार सम्पदा और साहित्य से सम्पन्न है। यूरोप के देशों और अमेरिका में भी उदय शंकर ने अपनी नृत्य मण्डली के द्वारा भारतीय नृत्य की पहचान कारवाई। वहाँ के लोगों में एक उत्सुकता जगाई ? की वाकई भारत जैसे देश में इन टी नृत्य कलाएँ हैं। 1925 से 1947 तक भारतीय नृत्य कला का परचम , यूरोप और अमेरिका में फैलाया जा रहा था।
श्री उदय शंकर जी की नृत्य मण्डली में केवल नर्तक और नृत्यांगनाएँ ही नहीं अपितु देश के जाने माने संगीतज्ञ भी थे। जिससे भारतीय संगीत की चर्चा भी विदेशों में हुई। भारतीय नृत्य के उद्गम और विकास में श्री उदय शंकर जी ने अहम भूमिका निभाई।शास्त्रीयता के नाम पर भरतनाट्यम की नृत्य शैली में श्रीमती रुक्मणी अरुनेडल ने यूरोप में पहुँचाया परंतु श्री उदय शंकर जी की नवविकसित शैली से लोग काफी प्रभावित थे। वैसे तो भारतीय नृत्य का यूरोप में प्रदर्शन 1920 में शुरू हो चुका था परंतु यह पूर्णतः भारतीय नहीं था।1920 से लेकर 1927 तक उदय शंकर जी ने अन्ना पावलोवा के साथ नृत्य किए। परंतु उसके पश्चात उन्होने भारत आकर उन्होने अपनी कंपनी की शुरुआत करने की कोशिश शुरू की। सभी कलाकारों को इकट्ठा करना एक बड़ा अहम कार्य था। इसके लिए उन्होने अपने मित्रों का सहारा भी लिया।
उदय शंकर अपनी नृत्य मण्डली को यूरोप ले जाना चाहते थे परंतु धन एक अहम समस्या थी। जिसमें एलिस बोनर ने उनका साथ दिया। रवि शंकर जी के तीनों भाई राजेंद्र, देवेंद्र और रवि नृत्य मण्डली में शामिल हुए। कनक लता, बिहारी बैनर्जी , इस समूह में उनकी माताजी हिमागिनी देवी ने भी रख रखाव का काम संभाला। लगभग सभी लोग परिवार व रिश्तेदार थे केवल राजेंद्र शंकर, बनारस से आनंद भट्टाचार्य बाहरी नर्तक थे। और एलिस बोनर को प्रबंधक के रूप में स्थान मिला था। 1930 में दुर्गा पूजा के बाद ग्रुप पेरिस के लिए रवाना हुआ। सीमकी जो उदय शंकर जी की नृत्य पार्टनर थीं वे पेरिस में ग्रुप के आने के बाद पहुँची। तमीर वरुण लगभग नवम्बर के मध्य में पहुँचे। पूरी नृत्य मण्डली तैयार थी।               
19 नवम्बर 1930 को वहाँ रिहर्सल शुरू हुई । यहाँ उल्लेखनीय बात यह है की किसी भी डांसर को यह पता नहीं था की उसे क्या करना है। उदय शंकर जी ने सभी को अपनी कार्यशैली के अनुसार तैयार किया और जन्म हुआ उदय शंकर शैली का। यहाँ अपने तरीके से एक नयी शैली की अभ्यास शैली भी तैयार की गयी जिससे शरीर को तैयार किया जा सके। वेश भूषा और आभूषण भी स्वयं तैयार किए गए। तमीर वरुण और विष्णुदास शिगली संगीत का कार्य तैयार करने में लगे जिन्हे समय समय पर उदय शंकर जी भी निर्देशित करते थे।
3 मार्च 1933 को उदय शंकर की कंपनी का पहला शो पेरिस में हुआ। जिसमें लगभग 15 आइटम थे। जिसमे 9 डांस और 6 संगीत रचनाएँ थीं। उदय शंकर जी के 3 एकल नृत्य इंद्रा, गन्धर्वा, शारी नृत्य। सिमकी के दो एकल नृत्य मंदिर नृत्य और बसंत । तीन युगल नृत्य , तलवार नृत्य , राधा कृष्ण, peasant डांस और अंत में तांडव                                                                                                                  (सिमकी)                                                   नृत्य जो की एक सामूहिक नृत्य था। जिसमें शंकर, सिमकी, देवेंद्र कनकलता , रवि, राजेंद्र  आदि नर्तकों ने भाग लिया। 4 शो पेरिस में करने के बाद कंपनी ने पेरिस     अपना वेश बना कर यूरोप के बाकी देशों में नृत्य यात्रा शुरू की। स्विट्ज़रलैंड, स्पेन,      हॉलैंड, बेल्जियम, क्ज़ेच्स्लोवकीय, हंगेरी, ऑस्ट्रीया, इटली, डेन्मार्क, नॉर्वे, स्वीडन,    फ़िनलैड, लात्विया, यू.एस.ए, यू.के , बर्मा, सिंगापुर, कौला लमपुर, पैलेस्टाइन, बुल्गारिया, युगोस्लाविया और पोलैंड। इन सात सालों में कंपनी ने लगभग 889 प्रदर्शन किए।जिससे यह पता चलता है की हर तीन दिन बाद एक शो।
                             
                              (उदय शंकर व उनकी मण्डली)                                                           यह समय भारतीय नृत्य का विदेशी भूमि में प्रदर्शन का स्वर्ण अध्याय था। भारतीय संगीत और नृत्य में जिस प्रकार उदय शंकर जी ने यूरोप में लोकप्रियता दिलाई उससे वहाँ के लोगों में भारतीय संस्कृति के प्रति जागरूकता आई। और भारतीय संस्कृति की पहचान हुई । तांडव नृत्य जैसी संरचनाओं ने भारतीय डांस ड्रामा को जन्म दिया। और बैले शब्द भारतीय नृत्य से जुड़ा। जिस प्रकार अमेरिका में मार्थाग्राम और ईसा डोराडंकन ने मॉडर्न डांस ने अमेरिका की संस्कृति को दिया। लगभग वही कार्य उदय शंकर जी ने भारत के लिए किया। परंतु आज़ादी के बाद उनको वह सम्मान का स्थान नहीं मिला । जो किसी योग्य पुरुष को प्राप्त होता है ।

विदेशों में भारतीय कला संस्कृति का आदान प्रदान राजनीति के अंतर्गत सन 1947 के पश्चात ही हुआ आज़ाद भारत में भारतीय सांस्कृतिक शास्त्रीय कलाओं को संरक्षण देने हेतु मंत्रालय का गठन हुआ। और आदान प्रदान के अंतर्गत अनेकों कलाकार विदेशों में अपनी सांस्कृतिक धरोहर को पहुँचने लगे।   


                                                                       (श्री उदय शंकर)